दीपावली पर्व आज हम जिस रूप में मनाते हैं, वो सदियों की सांस्कृतिक यात्रा का परिणाम है। यह उत्सव चाणक्य के दौर के कौमुदी महोत्सव का उत्तराधिकारी है, तो लक्ष्मी आराधना के रूप में प्राचीन तांत्रिक पूजा की झलक भी इसमें है। क्या आप जानते हैं, कब कौन-सी परंपरा इस पर्व में जुड़ती गई और पहली बार कब प्रामाणिक ऐतिहासिक किताबों में इनका उल्लेख किया गया था। आइए जान लेते हैं पुराणों और ग्रंथों में किस तरह शुरुआत हुई -
'340 से 280 ई.स.पूर्व दीपदान - कौमुदी महोत्सव का हिस्सा, - 1) चंद्रगुप्त तथा चाणक्य के समय पाटलिपुत्र में कौमुदी नामक महोत्सव बड़े पैमाने पर मनाया जाता था। इस दौरान जलाशयों के किनारे और नौकाओं में दीपक जलाए जाते थे। गुप्तकालीन ग्रंथों के अनुसार यह शरद पर्व पूर्णिमा पर मनाया जाता था। तब दीपावली उत्सव पूर्णिमा से अमावस्या तक का पर्व था।आज भी बनारस, हरिद्वार, ऋषिकेश और चित्रकूट में गंगा किनारे दीपदान की परंपरा वैसी ही है।
'सन 50 से 400 नृत्य-संगीत - यक्षरात्रि में परंपरा, - 2) वात्स्यायन द्वारा लिखे गए ‘कामसूत्र’ में इस महत्वपूर्ण उत्सव का उल्लेख यक्षरात्रि के रूप में है। यह कार्तिक की अमावस्या को मनाया जाता था। इसमें यह उत्सव सामाजिक गतिविधियों, संगीत, नृत्य के साथ मनाए जाने का उल्लेख है। आज छत्तीसगढ़ में राउत-नृत्य प्रचलित है। यह दीपावली के अवसर पर किया जाता है।
'सन 500 से 800 सजावट - ‘नीलमत पुराणम्’ में उल्लेख, - 3) ‘नीलमत पुराणम्’ किताब में इस त्योहार के साथ लोगों द्वारा घर और बाहर उजाला करने की बात सामने आती है। इसमें वंदनवार से सजावट, रिश्तेदारों और परिजन के साथ भोजन करने और नए कपड़े एवं महंगे गहने पहनने का भी जिक्र है। इस दिन जुआ खेलने की भी परंपरा का उल्लेख इस किताब में है। आज दिवाली पर रोशनी और सजावट पर ही करीब 20 हजार करोड़ रु. का कारोबार होता है। यह परंपरा लगातार बरकरार है, हालांकि रोशनी के साधन बदल गए हैं।
'606 से 648 तोहफे - ‘नागानन्द’ नाटक में बताया, - 4) कन्नौज के श्रीहर्षा ने अपने नाटक ‘नागानन्द’ में दीपप्रतिपादुत्सव का जिक्र किया है। इसमें नवयुगल को नए वस्त्र और तोहफे देने की परंपरा का उल्लेख है। जैसे तमिलनाडु में थलई दीपावली मनाई जाती है। अन्य प्रांतों में नवयुगल को सिर्फ पहली दीपावली पर तोहफे देने की प्रथा है। हालांकि अब यह प्रथा सिर्फ वस्त्रों तक सीमित नहीं है। लोग कई तरह के उपहार देने लगे हैं। आज देश में दिवाली पर 40 हजार करोड़ रुपए के गिफ्ट दिए-लिए जाते हैं। कई कंपनियां उपहार में कार तक देती हैं।
'सन् 959 रंगाई-पुताई-सफाई - सोमदेवसूरि ने लिखा है, - 5) सोमदेवसूरि ने अपनी रचना यशस्तिलकचंपू में घरों की रंगाई-पुताई की बात कही है। इसमें जिक्र है कि, घर की मुंडेर को रोशनी से सजाया जाने लगा था। यह सब महानवमी के बाद होता था। ऐसा वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद स्वच्छता बनाए रखने के लिए किया जाने लगा। सैकड़ों सालों में यह स्वच्छता पर्व के रूप में विकसित हो चुका है। घरों, मंदिरों, दुकानों सड़कों तक की सफाई होती है।
'सन् 1030 दान-पुण्य - रत्नमाला में दीपावली का उल्लेख, - 6) अंतरिक्ष वैज्ञानिक श्रीपति ने ज्योतिष रत्नमाला किताब में दिवाली का जिक्र किया है। वे लिखते हैं इस दिन लोग उत्सव की तरह तैयार होते हैं। मंदिर जाते हैं, दान देते हैं। अलबरुनी ने भी किताब ‘तहकीक अल हिंद’ में भी ‘दिवाली’ के नाम से इसका जिक्र किया है। इस दौर में पुरुषोत्तमदेव ने किताब त्रिकांडशेष में दिवाली का उल्लेख किया है। आज लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार गरीबों को कपड़े, मिठाइयां और पटाखे दान करते हैं।
'सन् 1080 से 1200 शृंगार - ‘जक्खरत्ती’ पर्व में उल्लेख, - 7) गुजरात के हेमचंद्र ने अपनी कृति देशी नाममाला में जक्खरत्ती का पर्व का उल्लेख किया है, इसे उन्हाेंने दिवाली बताया है। यह कार्तिक माह का वह उत्सव है जब महिलाएं घरों को रोशन करती हैं। आंखों में काजल लगाती हैं। सजती-संवरती हैं। आज शृंगार की परंपरा रूप चौदस के रूप में सामने है। कार्तिक मास में नदियों में स्नान भी किया जाता है।
'1250 ईसवीं लड्डू व मोदक - ‘लीलाचरित्र’ में इनका जिक्र, - 8) महानुभव पंत की किताब ‘लीलाचरित्र’ में लेखक चक्रधर ने कार्तिक अमावस्या (यानी दीपावली वाले दिन) पर गोसावी समाज स्नान के लिए बड़ी मात्रा में पानी जुटाने और मोदक-लड्डू जैसे पकवान बनाए जाने का जिक्र किया है। लीलाचरित्र के अनुसार स्नान से पहले लोग शरीर की मालिश करते थे। महिलाएं इन गोसावियों की दीए से आरती उतारा करती थीं। आज दीपावली एवं पकवान एक-दूसरे के पर्याय हैं। गुलाब जामुन को सर्वाधिक पसंद किया जाता है। इस दीपावली इसका 3,200 करोड़ के कारोबार का अनुमान है।
'1260 ईसवीं भाई दूज- चतुर्वर्गचिन्तामणि में यमद्वितीया, - 9) प्राचीन देवगिरी दौलताबाद, महाराष्ट्र के राजा महादेव के प्रधानमंत्री रहे हेमाद्री जी ने अपनी रचना चतुर्वर्गचिन्तामणि में यमद्वितीया का वर्णन किया है। इस दिन यम ने अपनी बहन यमुना के घर भोजन किया था। आज भाई द्वारा बहन के घर जाकर भोजन करने की परंपरा वैसी ही है। अब तो यह पांच दिनी दीपोत्सव का अहम हिस्सा बन गया है।
'15वीं सदी पटाखे - 15वीं सदी की कई पेंटिंग में, - 10) भारत में खुशी और उत्सव के मौके पर पटाखे चलाने की परंपरा पांच-छह सौ साल पुरानी है। दिल्ली स्थित नेशनल म्यूजियम से लेकर लॉस एंजिल्स के काउंटी म्यूजियम ऑफ आर्ट में रखी 15वीं सदी के बाद की कई पेंटिंग इसकी गवाह हैं। बाद में पटाखे चलाने की परंपरा हमारे दिवाली त्योहार में शामिल हो गई।
"ऐसी है आज की संपूर्ण दीपावली..!, - शरद पूर्णिमा पर मनाए जाने वाले कौमुदी उत्सव और अमावस्या को होने वाली यक्षरात्रि को मिलाकर समय के साथ एक बड़ा उत्सव बन गया है। यही दीपावली कहलाया। धीरे-धीरे इसमें तोहफे, रंगाई-पुताई, लक्ष्मीपूजा, पटाखे आदि जुड़ते चले गए। हालांकि 15वीं सदी के बाद ही धर्मग्रंथों में दीपावली का वर्णन वैसा है, जैसी वह आज है।
'सन् 1886 हेनरी यूल की किताब हॉबस्न-जॉब्सन में, - इसे तरह-तरह के पकवान बनाने-खाने का, तोहफे देने का, पटाखे चलाने का, नदी में दीपदान का उत्सव कहा गया है। इस दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास और रावण वध के बाद अयोध्या लौटे थे। इसी दिन भगवान कृष्ण ने नर्कासुर का वध किया था। पांडव बारह साल के वनवास के बाद अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौटे थे। भगवान विष्णु ने वामन रूप में देवी लक्ष्मी को बलि की कैद से मुक्त कराया था। राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ था। अगले दिन से विक्रम संवत की शुरुआत हुई थी। ढाई हजार साल पहले पावा नगरी में भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था। 1619 में सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह दीपावली के दिन ही 15 साल की कैद से मुक्त हुए थे। उनके स्वागत पर दीप जलाए गए थे।
'सन 50 से 400 नृत्य-संगीत - यक्षरात्रि में परंपरा, - 2) वात्स्यायन द्वारा लिखे गए ‘कामसूत्र’ में इस महत्वपूर्ण उत्सव का उल्लेख यक्षरात्रि के रूप में है। यह कार्तिक की अमावस्या को मनाया जाता था। इसमें यह उत्सव सामाजिक गतिविधियों, संगीत, नृत्य के साथ मनाए जाने का उल्लेख है। आज छत्तीसगढ़ में राउत-नृत्य प्रचलित है। यह दीपावली के अवसर पर किया जाता है।
'सन 500 से 800 सजावट - ‘नीलमत पुराणम्’ में उल्लेख, - 3) ‘नीलमत पुराणम्’ किताब में इस त्योहार के साथ लोगों द्वारा घर और बाहर उजाला करने की बात सामने आती है। इसमें वंदनवार से सजावट, रिश्तेदारों और परिजन के साथ भोजन करने और नए कपड़े एवं महंगे गहने पहनने का भी जिक्र है। इस दिन जुआ खेलने की भी परंपरा का उल्लेख इस किताब में है। आज दिवाली पर रोशनी और सजावट पर ही करीब 20 हजार करोड़ रु. का कारोबार होता है। यह परंपरा लगातार बरकरार है, हालांकि रोशनी के साधन बदल गए हैं।
'606 से 648 तोहफे - ‘नागानन्द’ नाटक में बताया, - 4) कन्नौज के श्रीहर्षा ने अपने नाटक ‘नागानन्द’ में दीपप्रतिपादुत्सव का जिक्र किया है। इसमें नवयुगल को नए वस्त्र और तोहफे देने की परंपरा का उल्लेख है। जैसे तमिलनाडु में थलई दीपावली मनाई जाती है। अन्य प्रांतों में नवयुगल को सिर्फ पहली दीपावली पर तोहफे देने की प्रथा है। हालांकि अब यह प्रथा सिर्फ वस्त्रों तक सीमित नहीं है। लोग कई तरह के उपहार देने लगे हैं। आज देश में दिवाली पर 40 हजार करोड़ रुपए के गिफ्ट दिए-लिए जाते हैं। कई कंपनियां उपहार में कार तक देती हैं।
'सन् 959 रंगाई-पुताई-सफाई - सोमदेवसूरि ने लिखा है, - 5) सोमदेवसूरि ने अपनी रचना यशस्तिलकचंपू में घरों की रंगाई-पुताई की बात कही है। इसमें जिक्र है कि, घर की मुंडेर को रोशनी से सजाया जाने लगा था। यह सब महानवमी के बाद होता था। ऐसा वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद स्वच्छता बनाए रखने के लिए किया जाने लगा। सैकड़ों सालों में यह स्वच्छता पर्व के रूप में विकसित हो चुका है। घरों, मंदिरों, दुकानों सड़कों तक की सफाई होती है।
'सन् 1030 दान-पुण्य - रत्नमाला में दीपावली का उल्लेख, - 6) अंतरिक्ष वैज्ञानिक श्रीपति ने ज्योतिष रत्नमाला किताब में दिवाली का जिक्र किया है। वे लिखते हैं इस दिन लोग उत्सव की तरह तैयार होते हैं। मंदिर जाते हैं, दान देते हैं। अलबरुनी ने भी किताब ‘तहकीक अल हिंद’ में भी ‘दिवाली’ के नाम से इसका जिक्र किया है। इस दौर में पुरुषोत्तमदेव ने किताब त्रिकांडशेष में दिवाली का उल्लेख किया है। आज लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार गरीबों को कपड़े, मिठाइयां और पटाखे दान करते हैं।
'सन् 1080 से 1200 शृंगार - ‘जक्खरत्ती’ पर्व में उल्लेख, - 7) गुजरात के हेमचंद्र ने अपनी कृति देशी नाममाला में जक्खरत्ती का पर्व का उल्लेख किया है, इसे उन्हाेंने दिवाली बताया है। यह कार्तिक माह का वह उत्सव है जब महिलाएं घरों को रोशन करती हैं। आंखों में काजल लगाती हैं। सजती-संवरती हैं। आज शृंगार की परंपरा रूप चौदस के रूप में सामने है। कार्तिक मास में नदियों में स्नान भी किया जाता है।
'1250 ईसवीं लड्डू व मोदक - ‘लीलाचरित्र’ में इनका जिक्र, - 8) महानुभव पंत की किताब ‘लीलाचरित्र’ में लेखक चक्रधर ने कार्तिक अमावस्या (यानी दीपावली वाले दिन) पर गोसावी समाज स्नान के लिए बड़ी मात्रा में पानी जुटाने और मोदक-लड्डू जैसे पकवान बनाए जाने का जिक्र किया है। लीलाचरित्र के अनुसार स्नान से पहले लोग शरीर की मालिश करते थे। महिलाएं इन गोसावियों की दीए से आरती उतारा करती थीं। आज दीपावली एवं पकवान एक-दूसरे के पर्याय हैं। गुलाब जामुन को सर्वाधिक पसंद किया जाता है। इस दीपावली इसका 3,200 करोड़ के कारोबार का अनुमान है।
'1260 ईसवीं भाई दूज- चतुर्वर्गचिन्तामणि में यमद्वितीया, - 9) प्राचीन देवगिरी दौलताबाद, महाराष्ट्र के राजा महादेव के प्रधानमंत्री रहे हेमाद्री जी ने अपनी रचना चतुर्वर्गचिन्तामणि में यमद्वितीया का वर्णन किया है। इस दिन यम ने अपनी बहन यमुना के घर भोजन किया था। आज भाई द्वारा बहन के घर जाकर भोजन करने की परंपरा वैसी ही है। अब तो यह पांच दिनी दीपोत्सव का अहम हिस्सा बन गया है।
'15वीं सदी पटाखे - 15वीं सदी की कई पेंटिंग में, - 10) भारत में खुशी और उत्सव के मौके पर पटाखे चलाने की परंपरा पांच-छह सौ साल पुरानी है। दिल्ली स्थित नेशनल म्यूजियम से लेकर लॉस एंजिल्स के काउंटी म्यूजियम ऑफ आर्ट में रखी 15वीं सदी के बाद की कई पेंटिंग इसकी गवाह हैं। बाद में पटाखे चलाने की परंपरा हमारे दिवाली त्योहार में शामिल हो गई।
"ऐसी है आज की संपूर्ण दीपावली..!, - शरद पूर्णिमा पर मनाए जाने वाले कौमुदी उत्सव और अमावस्या को होने वाली यक्षरात्रि को मिलाकर समय के साथ एक बड़ा उत्सव बन गया है। यही दीपावली कहलाया। धीरे-धीरे इसमें तोहफे, रंगाई-पुताई, लक्ष्मीपूजा, पटाखे आदि जुड़ते चले गए। हालांकि 15वीं सदी के बाद ही धर्मग्रंथों में दीपावली का वर्णन वैसा है, जैसी वह आज है।
'सन् 1886 हेनरी यूल की किताब हॉबस्न-जॉब्सन में, - इसे तरह-तरह के पकवान बनाने-खाने का, तोहफे देने का, पटाखे चलाने का, नदी में दीपदान का उत्सव कहा गया है। इस दिन भगवान राम 14 वर्ष के वनवास और रावण वध के बाद अयोध्या लौटे थे। इसी दिन भगवान कृष्ण ने नर्कासुर का वध किया था। पांडव बारह साल के वनवास के बाद अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौटे थे। भगवान विष्णु ने वामन रूप में देवी लक्ष्मी को बलि की कैद से मुक्त कराया था। राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ था। अगले दिन से विक्रम संवत की शुरुआत हुई थी। ढाई हजार साल पहले पावा नगरी में भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था। 1619 में सिखों के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह दीपावली के दिन ही 15 साल की कैद से मुक्त हुए थे। उनके स्वागत पर दीप जलाए गए थे।
विधायक 'मा.श्री सुधीरभाऊ मुनगंटीवार,
(वने,सांस्कृतिक कार्य,मत्स्यव्यवसाय मंत्री महाराष्ट्र शासन)
समाज-कार्य (social work) ..!
समाजसेवा एक शैक्षिक एवं व्यावसायिक विधा है, जो सामुदायिक संगठन एवं अन्य विधियों द्वारा लोगों एवं समूहों के जीवन-स्तर को उन्नत बनाने का प्रयत्न करता है। सामाजिक कार्य का अर्थ है सकारात्मक और सक्रिय हस्तक्षेप के माध्यम से लोगों और उनके सामाजिक माहौल के बीच अन्तःक्रिया प्रोत्साहित करके व्यक्तियों की क्षमताओं को बेहतर करना ताकि वे अपनी ज़िंदगी की ज़रूरतें पूरी करते हुए अपनी तकलीफ़ों को कम कर सकें। इस प्रक्रिया में समाज-कार्य लोगों की आकांक्षाओं की पूर्ति करने और उन्हें अपने ही मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरने में सहायक होता है। 'समाजसेवा' वैयक्तिक आधार पर, समूह अथवा समुदाय में व्यक्तियों की सहायता करने की एक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति अपनी सहायता स्वयं कर सके। इसके माध्यम से सेवार्थी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सक्षम होता है। समाजसेवा अन्य सभी व्यवसायों से सर्वथा भिन्न होती है, क्योंकि समाज सेवा उन सभी सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों का निरूपण कर उसके परिप्रेक्ष्य में क्रियान्वित होती है, जो व्यक्ति एवं उसके पर्यावरण-परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रभावित करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता पर्यावरण की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों के बाद व्यक्तिगत जैविकीय, भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक तत्वों को गतिशील अंत:क्रिया को दृष्टिगत कर ही सेवार्थी को सेवा प्रदान करता है, जैसे कि, बल्लारपुर विधानसभा क्षेत्र के लोकप्रिय विधायक 'मा.श्री सुधीरभाऊ मुनगंटीवार (वने,सांस्कृतिक कार्य,मत्स्यव्यवसाय मंत्री महाराष्ट्र शासन),। वह सेवार्थी के जीवन के प्रत्येक पहलू तथा उसके पर्यावरण में क्रियाशील, प्रत्येक सामाजिक स्थिति से अवगत रहता है। क्योंकि सेवा प्रदान करने की योजना बताते समय वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।समाज-कार्य करने वाले कर्ता का आचरण विद्वान की तरह न होकर समस्याओं में हस्तक्षेप के ज़रिये व्यक्तियों, परिवारों, छोटे समूहों या समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने की तरफ़ हमेशा उन्मुख होता है। ऐसे ही महान समाजसेवक विकास पुरुष बल्लारपुर विधानसभा क्षेत्र के लोकप्रिय विधायक 'मा.श्री सुधीरभाऊ मुनगंटीवार (वने,सांस्कृतिक कार्य,मत्स्यव्यवसाय मंत्री महाराष्ट्र शासन) को 'चंडिका एक्सप्रेस, वेब न्यूज पोर्टल एंड इंटरटेनमेंट चैनल की ओर से उन्हें उनके अग्रेषित कार्यों की सफलता के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं देता हैं...!
मा.श्री सुधाकर गोविंदराव अडबाले
शिक्षक आमदार (विधान परिषद सदस्य)
नागपुर विभाग शिक्षक मतदार संघ
संस्थापक अध्यक्ष - (नागपुर विभाग शिक्षक - शिक्षकेत्तर कर्मचारी सहकारी पत संस्था मर्यादित, चंद्रपुर) तथा (सरकार्यवाह - विदर्भ माध्यमिक शिक्षक संघ)
शिक्षक - गुरु - अध्यापक - आचार्य या टीचर जिस नाम से भी पुकारो वे परोपकारी ही हैं..!
शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूजनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है। ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है। सही मायनो में कहा जाये तो एक शिक्षक ही अपने विद्यार्थी का जीवन गढ़ता है। शिक्षक ही समाज की आधारशिला है। एक शिक्षक अपने जीवन के अन्त तक मार्गदर्शक की भूमिका अदा करता है और समाज को राह दिखाता रहता है, तभी शिक्षक को समाज में उच्च दर्जा दिया जाता है। एक शिक्षक द्वारा दी गयी शिक्षा ही शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास का मूल आधार है। शिक्षकों द्वारा प्रारंभ से ही पाठ्यक्रम के साथ ही साथ जीवन मूल्यों की शिक्षा भी दी जाती है। शिक्षा हमें ज्ञान, विनम्रता, व्यवहारकुशलता और योग्यता प्रदान करती है। शिक्षक को ईश्वर तुल्य माना जाता है। आज भी बहुत से शिक्षक शिक्षकीय आदर्शों पर चलकर एक आदर्श मानव समाज की स्थापना में अपनी महती भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। गुरु एवं शिक्षक ही वो हैं, जो एक शिक्षार्थी में उचित आदर्शों की स्थापना करते हैं और सही मार्ग दिखाते हैं। एक शिक्षार्थी को अपने शिक्षक या गुरु के प्रति सदा आदर और कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। किसी भी राष्ट्र का भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का महत्व यहीं समाप्त नहीं होता, क्योंकि वे न सिर्फ हमको सही आदर्श मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं बल्कि प्रत्येक शिक्षार्थी के सफल जीवन की नींव भी उन्हीं के हाथों द्वारा रखी जाती है। किसी भी देश या राष्ट्र के विकास में एक शिक्षक द्वारा अपने शिक्षार्थी को दी गई शिक्षा और शैक्षिक विकास की भूमिका का अत्यंत महत्व है। इसलिए आज भी '5 सितंबर, शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन गुरुओं और शिक्षकों को अपने जीवन में उच्च आदर्श जीवन-मूल्यों को स्थापित कर आदर्श शिक्षक और एक आदर्श गुरु बनने की प्रेरणा देता है। ऐसे ही हमारे आदर्श मिलनसार स्वभाव के हसमुख धनी 'मा.श्री सुधाकर गोविंदराव अडबाले, शिक्षक आमदार (विधान परिषद सदस्य) नागपुर विभाग शिक्षक मतदार संघ (संस्थापक अध्यक्ष - नागपुर विभाग शिक्षक शिक्षकेत्तर कर्मचारी सहकारी पत संस्था मर्यादित, चंद्रपुर) तथा (सरकार्यवाह - विदर्भ माध्यमिक शिक्षक संघ) को उनके अग्रेषित कार्यों की सफलता के लिए 'चंडिका एक्सप्रेस, वेब न्यूज पोर्टल एंड इंटरटेनमेंट चैनल की ओर से ढेर सारी शुभकामनाएं देते हैं।!! बिना सहकार नही उद्धार !!
नागपुर विभाग शिक्षक - शिक्षकेत्तर कर्मचारी सहकारी पत संस्था मर्यादित चंद्रपुर
(कार्यक्षेत्र: चंद्रपुर,नागपुर,गडचिरोली,वर्धा,भंडारा व गोंदिया जिल्हा)
𝑯𝑨𝑷𝑷𝒀 𝑫𝑬𝑬𝑷𝑨𝑾𝑨𝑳𝑰
𝑯𝒂𝒑𝒑𝒚 𝑫𝒆𝒆𝒑𝒂𝒘𝒂𝒍𝒊 ..!
GANESH RAHIKWAR
Chief Editor & Film Director